सात बजते बजते
साँझ ने खिड़की से झांककर आवाज दी
‘चलो निकलो बाहर,
नीले आसमान में
यहाँ वहाँ बिखरे सलेटी
बादल देखो,
देखो उधर कुछ नारंगी गर्दनों वाले कई बगुले
खाली पड़े खेत मे कीड़े खा रहे हैं
या शायद कुछ और भी।
चलो चलो’
‘तुम फिर आ गई!
तुम्हारे पास कोई काम नहीं है?’
मैंने हाथ मे पकड़ी किताब को
हिलाकर इशारा किया
जिसकी जिल्द पर एक बड़े से कुत्ते की तस्वीर बनी है।
‘तुम्हारे पास भी तो नहीं।’
उसने अपनी आँखें तरेरीं
और मुझे बिना सोचे कहना पड़ा
‘ये बिल्कुल सच है।’
किताबों के पन्नों के बीच
कौन सी ज़िंदगी रखी है!
‘चलो नाचें।’
‘तुम नाचो।’
किताब को बेड पर फेंककर
मैं उसके पीछे पीछे हो लिया।
घर की दीवार से लगे खाली पड़े खेत में
नारंगी रंग की गर्दन वाले ढेरों बगुले
अपनी पतली और लंबी टाँगें
मिट्टी में सम्हाल सम्हाल कर रख रहे थे
और बड़े ही करीने से
कीड़े चुन कर खा रहे थे,
या शायद कुछ और भी।
‘चलो तुम्हारी तस्वीरें लूँ।’
‘अरे अरे, एक मिनट!’
वो भाग कर बालकनी के पास जाती है और
रेलिंग से सट कर खड़ी हो जाती है।
अस्तित्व के अनंत प्रवाह में
ठहराव सा तो कुछ भी नहीं
लेकिन इस क्षण में कोई जीकर देखे —
रात के अँधेरों में घुलती दिन की रौशनी,
पेड़ों के झुरमुट से झांकते क्षितिज पर बिखरे रंग,
हवा में लहराते पंछियों का कलरव —
और एक अनुभूति उठती है जैसे,
सब बस अभी और यहीं हो,
कहीं और नहीं,
जैसे,
यही अस्तित्व का अल्प विराम हो,
कुछ करने, कुछ पाने, कुछ होने
के पागलपन से हटकर,
किनारे खड़े हो जाने,
और अधूरे ही सही,
(और पूरा कौन हुआ है ? )
इन स्याह रंगों की निस्तब्धता में
निश्चल खड़े रहने के लिए एक निमंत्रण हो।
इसलिए
मैं ठहर गया हूँ
कुछ क्षण के लिए,
निरुद्देश्य,
निर्द्वंद्व,
निहारता अपलक
उसे जो कुछ देर में मिट जाएगा,
खो जाएगा,
हो जाएगा ओझल
शायद स्मृतियों से भी।