क्रोध
दावानल सा उभार
एक चीत्कार
अहंकार झुलसता
किसकी निर्मित सीमाओं में कुंठित?
फिर विप्लव - भावों का
तड़ित
शोक और व्यथित
और फिर एकदम शांति - विकृत सी
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महत्वाकांक्षा
महत्वाकांक्षा
एक पतंग की तरह
तुम्हें बाँधे हुए है डोर से
देखते नहीं तुम कहाँ पैर पड़ते तुम्हारे
आकाश में टंगी हुई तुम्हारी आँखें
गिरते भी हो, चोट भी खाते
लेकिन दृष्टि वहीं रहती है
कितनी उड़ाई, कितनी कटीं
आतुर तुम मनभावन कल्पित दृश्यों से
भागे पीछे हर बार
खेल वहीं का वहीं।
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अनिर्णय
हर अनिर्णय
एक भारी पत्थर
द्वंद्व की कसमसाहट !
हर निर्णय
एक तीर - फिर ना होगा स्थगित
चल गया जो एक बार
और फिर भी वंचित मैं उन संभावनाओं से
जिन पर लौटना होगा असंभव !
ऐसा नहीं हो सकता
कि तुम सब देख लेना और मुझे बता देना?
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सत्य
मैं कतराने लगा हूँ
अब सत्य के पक्षपात से
एक ही दृश्य के जितने साक्षी उतने सत्य
और कोई भी निरपेक्ष नहीं
तो कौन जाने वो सब जो मुझसे कह गया वो
जिसे आज किसी ने बताया कि ‘झूठ’ था
वो उसका उस क्षण का ‘सत्य’ हो
या उसने मेरे लिए एक उपयुक्त सत्य चुना हो
जो मैं स्वीकार कर सकूँ !
उसे और स्वयं को भी।
‘सत्य तुम्हें मुक्त करेगा’
लेकिन मिलता कहाँ ऐसा सत्य?
कोई सत्य मुक्त नहीं करता
केवल प्रतीक्षा करता है अपने विरोधी सत्य की
जो आए और खंडित कर दे
हर सरल प्रतिमा जो गढ़ी गई कभी
यूँ ही संयोगवश।
मैं कतराने लगा हूँ
अब सत्य के पक्षपात से।
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अपेक्षा
लोग सहारे ढूंढते हैं दूसरों में
उनके चेहरों पर अपनी अपेक्षाओं के पोस्टर चिपकाते
पोस्टरों पर नए पोस्टर!
यही उनके जीवन का व्यापार
फिर सोचते हैं कि वे विवश क्यों हैं
दूसरे का स्वतंत्र अस्तित्व
उसकी कामना
उसकी चपलता, उसका आनंद!
जिनका अस्तित्व सबल है
वो अपनी निजता के खालीपन को
अपेक्षाओं के पोस्टरों से नहीं ढकते।