लिखो कुछ।
लिखना तो आता है तुम्हें।
शब्दों को
सलीके से
सूखी लकड़ियों सा चुनना,
उन्हें रगड़ना,
इस उम्मीद से
कि कोई चिंगारी पैदा हो,
जो आग बनकर
इस बियावान को रौशन करे।
उसकी आंच में बैठकर
फिर तुम टकटकी बांधे
देर तक
नाचती हुई लपटों को देखना,
अंतरिक्ष की ओर
उठते धुएं को निहारना
जिसमें कई आकृतियाँ उभरेंगी
खो जाएंगी।
रुकना तुम
कुछ और देर —
दृश्य और अदृश्य
शब्द और निशब्द
प्रतीक्षा और अकुलाहट
की सीमा पर !
एक सिहरन,
एक क्षणिक अनुभूति
कि एक रहस्य खुलने वाला हो जैसे!
तुम रुकना..