तुम डूब तो नहीं रहे हो?
लहरों के बीच तुम कभी दिखते हो
और कभी ओझल हो जाते हो,
और फिर बहुत देर तक नहीं दिखते।
जहां तक नज़र जाती है
मुझे दिखते हैं
सलेटी आसमान में इधर से उधर
दौड़ते हांफते बादल,
और जमीन पर स्थिर खड़ी
किनारे की निस्तब्ध चट्टानें —
इनके बीच सिमटता खिंचता समय
शायद पल भर का ही
या फिर सालों का।
मैं इस किनारे पर खड़ा
कुछ देर के लिए ही सही,
सोचता हूँ तुम्हें
मन के कैनवस पर कुछ लकीरें उभरती हैं
और तुम्हारा चेहरा किसी पुरानी याद में से
झाँकता है, खिलखिलाता है
तुम्हारी कही कोई बात थिरकती है
और मैं हंस देता हूँ
लेकिन कुछ ही देर में मैं फिर भटक जाता हूँ —
इतनी रौशनी, इतनी आवाज़ें हैं इस किनारे पर:
तमाम लोग जो मुझे जानते हैं
और जिन्हें मैं जानता हूँ,
एक दूसरे को जानते रहने का ये कुटीर उद्योग
बेइंतहा शोर के बिना नहीं चलता
आवाजों का आवाजों को जवाब देना
बस, यही,
लगातार,
और शायद ठीक भी यही हो?
लेकिन सारी आवाजों के मद्धिम पड़ जाने के बाद
फिर से ख्याल आता है तुम्हारा —
ढूँढता हूँ तुम्हें,
देर से ही सही, दिखते हो:
पानी की सतह पर
एक स्याह लकीर झिलमिलाती है
और तुम मिल जाते हो।
तुम।
जो बीच मझधार मे हो
लहरों पर थपकियाँ देते तुम्हारे हाथ
तुम्हें लिए चले जाते हैं किसी ओर
कहीं और..
तैरते, गोते लगाते तुम थकते नहीं
तुम्हें शायद फिक्र भी नहीं है —
दूर होते किनारों की,
पास आती साँझ की,
उस अतल गहराई की जिसमे
तुम समा सकते हो
(या समा जाना चाहते हो),
और उन बियावान अँधेरों की
जिनसे दुबककर दुनिया की सारी रौशनी
इन किनारों पर जुगनुओं की तरह टिमटिमाती है।
फिर कहीं ऐसा तो नहीं
ये सब सिर्फ मैं सोच रहा हूँ,
और सच ये हो
कि तुम भी बेचैन हो
तुम्हारी बाहें भी थकती हों
टूटती हों,
लेकिन लहरों पर तैरने का जुनून तुम्हें तैराये रखता हो?
कहीं ऐसा तो नहीं
कि तुम बहुत दूर निकल चुके हो
और किनारे पर लौटना
अब तुम्हें एक हार लगे।
शायद ये भी कि
तुम इतने थक चुके हो कि
तुमसे ये लौटना हो ही न सके।
कहीं तुम डूब तो नहीं रहे हो ?
क्या तुम इतनी दूर निकल चुके हो
कि किसी को पुकार न सको?
फिर सोचता हूँ
तुम्हारा अहंकार तुम्हें पुकारने देगा ?
तुम चाहोगे कि कोई तुम्हें सुने?
किसी को अधिकार तो नहीं
तुमसे तुम्हारा अर्थ छीनने का।
दिन ढल चुका है।
मैं धुँधलाती आँखों से क्षितिज पर
बिखरे फीके रंगों को देख रहा हूँ।
किनारों को सराबोर करती
लहरें बढ़ती आ रही हैं
सब कुछ लील लेने को,
और मैं अपने पाँव कई कदम पीछे खींच रहा हूँ।
मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ हो।
मेरे सामने
अस्तित्व का अनवरत अनंत
मृत्यु का सा मुंह बाये खड़ा है
..
मैं चीख रहा हूँ
तुम्हारा नाम
ये जानते हुए भी कि
शायद मेरी आवाज
तुम तक नहीं पहुंचेगी।
मैं चीख रहा हूँ
तुम्हारे लिए और शायद अपने लिए भी
तुम डूब तो नहीं रहे हो?
Writer’s Note: This poem is a thematic sibling of another poem called ‘Drowning’ though there is a difference of many years between their births. You may read it here.